हमारे कार्यालय में भारतीय राष्ट्रीय सहकारी संघ की परियोजनाओं में कार्यरत व्यक्तियों से हजारों फोन आ रहे है. उन्हें पिछले 3-4 महीनों से वेतन नहीं मिला है और उनका भविष्य अधर में लटका हुआ है।
कृषि मंत्रालय के बाबुओं और हठी सहकारी नेताओं के बीच लड़ाई में गरीब लोग फंसे है. भारतीय सहकारिता भी उनकी किसी प्रकार की मदद करने की स्थिति में नहीं है।
मंत्रालय ने जोर देकर कहा कि बाइ-लॉज (जो गवर्निंग काउंसिल और अध्यक्ष की वित्तीय और कार्यकारी शक्तियों को सीमित करेंगे) में उपयुक्त परिवर्तन किए बिना एनसीयूआई को आगे वित्तीय सहायता के लिए पात्र नहीं माना जाएगा। शासी परिषद अब तक इस तरह के प्रयास का विरोध करती रही है।
मंत्रालय में एक वर्ग की यह राय है कि सहकारी नेताओं को नीतिगत मामलों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और उन्हें सहकारी आंदोलन को मजबूत बनाने के लिए आगे आना चाहिए। वे स्थानान्तरण, पोस्टिंग, भर्ती और अन्य बुनियादी मामलों में उलझे रहते है।
कुछ राज्य संवैधानिक संशोधन का विरोध कर रहे हैं, कयोंकि उनके लोग समीतियों में शीर्ष पर हैं और उन्हें डर है कि उन्हें चुनाव करवाना पड़ेगा। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में कुछ लोग 40 सालों से सहकारी निकायों में मुखिया बनकर बैठे हैं।
एनसीयूआई के शीर्ष नेताओं को ऐसे राज्यों का दौरा करना चाहिए तथा लोगों और सरकार को समझाना चाहिए कि इस संशोधन से उनको कौन से फायदें होने वाले है। मंत्रालय की राय है कि अगर राज्यों में सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार क्षेत्र की परियोजनाओं के मुखिया बनाए जाते है, तो उनकी भागीदारी इसकी सफलता सुनिश्चित करेगी। एनसीयूआई शासी परिषद के सदस्यों को अब तक क्षेत्र की परियोजनाओं के मुखिया के रूप में नामित किया जाता रहा है।
एनसीयूआई ने मंत्रालय से अगले पांच वर्षों के लिए 500 करोड़ रुपये की मांग की है। मंत्रालय 31 मई तक नियम बदलने पर जोर दे रहा है. एनसीयूआई शासी परिषद की 24 मई को बैठक है। जब तक सहकारी नेता इसका एक कायदें का समाधान नही ढूंढते है तब तक एनसीयूआई का भविष्य अधर में लटका रहेगा।