राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक ने मुंबई में गुरुवार को अपना 30 वां स्थापना दिवस मनाया. इस कार्यक्रम में सहकारी बैंकों में से किसी ने भी भाग नहीं लिया.
नाबार्ड मुख्य रूप से ग्रामीण विकास के लिए कार्य करने के लिए स्थापित हुआ था. इसने लगभग सभी वाणिज्यिक बैंकों को आमंत्रित किया लेकिन सहकारी बैंकों को नहीं जबकि इसके मुख्य विषयों में से एक सहकारी बैंक ही है. केवल एक अपवाद महाराष्ट्र राज्य सहकारी बैंक था लेकिन इसने कोई प्रतिनिधि नहीं भेजने का फैसला किया.
दिलचस्प बात यह है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर सहित अन्य वक्ताओं ने ज्यादातर मामले में सहकारी समितियों के विषय पर प्रकाश डाला. इससे नाबार्ड की संकीर्णता उजागर हुई.
यह एक आदर्श स्थिति होती जब कृषि प्रधान भारत के विकास के प्रयास में नाबार्ड ने सहकारी बैंकों को भागीदार बनाया होता.
सहकारी बैंकों के शीर्ष महासंघ “राज्य सहकारी बैंक राष्ट्रीय महासंघ (NAFSCOB)” को भी नजरअंदाज किया गया.
जब भारतीयसहकारिता.कॉम ने NAFSCOB के प्रबंध निदेशक डॉ. भीम सुब्रमन्यम से उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए संपर्क किया तो उन्होंने जल्दी में कहा “हो सकता है कि हमारा प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को लगातार पत्र लिखना नाबार्ड द्वारा पसंद न किया गया हो”. नाबार्ड और NAFSCOB के बीच युद्ध की कहानी पांच साल पुरानी है.
नाबार्ड एकमात्र संगठन नहीं है जो सहकारी संस्थाओं और उनके नेताओं से दूरी बनाए रखता है. अभी हाल ही में विज्ञान भवन के इफको की बुकिंग को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा रद्द कर दिया गया जबकि अग्रिम बुकिंग कराई गई थी. इस तरह के अनादर आम हो गए हैं और जब तक स्वार्थरहित और गतिशील सहकारी नेतृत्व क्षितिज पर नहीं दिखाई देता तब तक सरकारी बाबू सहकारी समितियों के साथ गलत तरीके से पेश आते रहेंगे. 25 करोड़ सहकारिता कर्मियों वाले देश पर यह एक भयावह टिप्पणी है.