भारतीय सहकारिता डॉट कॉम के संवाददाता ने उत्तरी बिहार में सहकारी गतिविधियों का हाल ही में जायज़ा लिया और एक मरणासन्न सहकारी आंदोलन को देखकर वह भौचक्के रह गए।
संवाददाता सहकारी आंदोलन पर लोगों के विचार जानने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने दरभंगा, मधुबनी और समस्तीपुर के गांवों का दौरा किया लेकिन एक भी सहकारी इकाई सफलतापूर्वक कार्य करते हुए नज़र नहीं आई।
स्थानीय लोगों के अनुसार वहाँ कई सहकारी निकाय 70 और 60 के दशकों में काफी अच्छा काम किया था, लेकिन 80 के दशक में उनका अचानक अंत देखा गया।
दरभंगा में अपने ही गांव कृजापट्टी में सहकारी दृश्य के साथ बारीकी से जुड़े मोहन झा ने कहा कि बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और सहकार्यों के बीच तुच्छ सत्ता संघर्ष ही आंदोलन की गिरावट के लिए मुख्य रूप से कारण रहे है।
अधिकांश उत्तरदाताओं ने संवाददाता से उदासीन आंदोलन के बारे में बात की और जल्द ही उन लोगों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए इन चीजों की लंबी सूची है जो कि बड़े ही दुख की बात है।
संवाददाता ने कई गांवों का बिना पूर्व सूचना के ही दौरा किया लेकिन एक भी जीवंत सहकारी सोसायटी नही मिला। भारतीय सहकारिता ने अपने संवाददाता द्वारा एकत्र किए गए आंकड़ों को संसाधित किया है और और इस निष्कर्ष पर आया है कि बिहार के इस हिस्से में तत्काल आंदोलन को फिर से शुरू करने की जरूरत है जहां अभी भी अधिकांश लोग अपमानजनक गरीबी में रह रहे हैं।
इसके अलावा कृषि यहाँ एकमात्र आर्थिक कारोबार है जिसके लिए क्रेडिट की जरुरत है। क्रेडिट देने का काम कॉपरेटिव सोसायटी कर सकते है। लाभ कमाने वाला पूंजीवाद और सत्तावादी समाजवाद दोनों के विकल्प के रुप में कॉपरेटिव आंदोलन साबित हो सकता था लेकिन निहित स्वार्थ रखनेवालों ने इस महान विचार को नष्ट कर दिया।