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सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय के सहयोग से सहकार भारती के कानूनी प्रकोष्ठ ने पिछले सप्ताह केंद्रीय और राज्य सहकारी अधिनियमों पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया, जिसमें 12 राज्यों के प्रतिष्ठित वकीलों ने भाग लिया।
दिन-भर की चर्चा के परिणामस्वरूप विभिन्न राज्यों में प्रचलित सहकारी अधिनियमों का अध्ययन करने और एक नये सहकारी अधिनियम को तैयार करने में मदद का संकल्प लिया गया, जो वर्तमान समय के लिए प्रासंगिक हो।
इस जानकारी को साझा करते हुए आरबीआई के निदेशक सतीश मराठे ने अपनी फेसबुक वॉल पर लिखा कि, “विचार-विमर्श के अंत में यह निर्णय लिया गया कि सहकार भारती के राज्य स्तरीय कानूनी प्रकोष्ठ प्रत्येक राज्य के सहकारिता अधिनियम का व्यापक अध्ययन करेंगे और लीगल सेल को रिपोर्ट प्रस्तुत करेंगे”।
इस अलावा कई अन्य विषयों पर भी विचार-विमर्श किया गया जिसमें सहकारी समिति बनाने के लिए मौलिक अधिकार का प्रवर्तन, सहकारी विभागों द्वारा जारी किए गए निर्देशों या परिपत्रों, जो मौलिक अधिकार और राज्य के नीति-निर्देश तत्वों के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हों समेत अन्य पर चर्चा हुई।
अकादमिक चर्चाएँ सहकारिता के सात सिद्धांतों और सहकारी समितियों के संचालन की स्वतंत्रता और स्वायत्तता को बढ़ाए जाने तरीकों के आसपास केंद्रित था। प्रतिभागियों ने सहकारी समितियों को आर्थिक उद्यमों के रूप में पहचान कराये जाने का संकल्प लिया है जहां कि “ईज ऑफ डूइंग बिजनेस” की बात आती है, जैसा कि निजी कंपनियों के साथ होता है। उन्होंने सहकारी संस्थाओं को वित्तीय और कानूनी रूप से सशक्त बनाने की तत्काल आवश्यकता महसूस की।
विचार-विमर्श का नेतृत्व करने वालों में पुणे के वकील श्रीकांत कानेटकर,कोलकाता के एडवोकेट सुस्मिता साहा दत्ता, नागपुर के एडवोकेट सचिन नारले, शिमला के डॉ विवेक ज्योति, उडीपी के एडवोकेट मंजूनाथ और जम्मू के एडवोकेट सिद्धार्थ एवं अन्य शामिल थे।
इस अवसर पर उपस्थित लोगों में आरबीआई के निदेशक – सतीश मराठे, सहकार-भारती के महासचिव उधायजी जोशी, आयोजन सचिव संजयजी पचपोर, मुंबई उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश प्रो. (डॉ.) नितिन आर. करमलकर,पुणे-विश्वविद्यालय के उप-कुलपति प्रो.(डॉ.) मुकुंद तपकीर, “पद्मश्री डॉ. विखे पाटिलसहकारिता पीठ” के अध्यक्ष प्रोफेसर, एडवोकेट श्रीकांत कानेटकर, चार्टर्ड एकाउंटेंट्स संस्थान के पुणे चैप्टर के अध्यक्ष सीए रूटा चितले एवम् अन्य शामिल थे।
इस अवसर पर बोलते हुए सतीश मराठे ने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों द्वारा 1967 के बाद सहकारी क्षेत्र की उन्नति और विकास को बढ़ावा देने के बजाय विनियमन और नियंत्रण पर फोकस रखने की प्रवृत्ति पर खेद प्रकट किया।
मराठे ने महसूस किया कि इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक और नौकरशाही का हस्तक्षेप बढा है और राजनीतिकरण हुआ है। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार अब सहकारी समितियों का अभिषाप बन गया है। मराठा ने आईसीए और आईएलओ की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए सभी अधिनियमों को नये सिरे से बनाने की वकालत की।
“पद्मश्री डॉ. विखे पाटिल सहकारी पीठ” के तत्वावधान में आयोजित संगोष्ठी में डॉ. उदय जोशी ने प्रतिभागियों का स्वागत किया और देश के वर्तमान आर्थिक परिदृश्य के संदर्भ में सहकारिता अधिनियमों के कुछ धाराओं को अद्यतन करने और फिर से लिखने की आवश्यकता पर बल दिया।
जोशी ने पिछले कुछ वर्षों में सहकार भारती की तेज प्रगति का ब्योरा भी दिया।
मुंबई उच्च न्यायालय के रिटायर्ड न्यायाधीश मा. अंबादास जोशी ने कहा कि ग्रामीण गरीबों के साथ-साथ शहरी गरीबों के उत्थान के लिए सहकारी संस्थाएं वर्तमान परिदृश्य में सबसे उपयुक्त हैं। उन्होंने यह भी महसूस किया कि एक जीवंत सहकारिता आंदोलन के माध्यम से कृषि-संकट से निपटा जा सकता है।