हालांकि एनसीयूआई की गर्वनिंग काउंसिल का कार्यकाल इस साल मार्च में समाप्त हो गया लेकिन कोविड-19 और कानूनी कार्यवाही के चलते कार्यकाल को अनिश्चित अवधि के लिए आगे बढ़ाना पड़ेगा।
“भारतीयसहकारिता” को देर से प्राप्त एक खबर के मुताबिक, बताया जा रहा है कि दोनों पक्षों के अधिवक्ताओं के बीच वाक् युद्ध के कारण मामला और जटिल हो गया है। पिछली सुनवाई एनसीयूआई के अधिवक्ता श्री ओम प्रकाश द्वारा कुछ असंसदीय शब्दों के प्रयोग से कार्यवाही बाधित हो गई थी।
“भारतीयसहकारिता” से बात करते हुए, याचिकाकर्ता अशोक डबास ने बताया कि हमारे वकील ने जैसे ही अपना तर्क समाप्त किया वैसे ही एनसीयूआई के अधिवक्ता ने हमारे लिये असंसदीय शब्दों का प्रयोग किया।
इस संदर्भ में न्यायालय ने अपने दिनांक 4.3. 2020 के आदेश में कहा, “तर्कों-वितर्कों के दौरान कुछ असंसदीय शब्दों के प्रयोग से कार्यवाही बाधित हुई, जिसको उचित नहीं माना गया।”
आदेश के मुताबित, “एनसीयूआई के वकील द्वारा उक्त कथन को विधिवत और स्पष्ट रूप से वापस ले लिया गया है। दोनों पक्षों को यह समझाया गया है कि मध्यस्थता कोर्ट की तुलना में कम औपचारिक व्यवस्था है, फिर भी कोर्ट के समान शिष्टाचार को बनाए रखने की आवश्यकता होती है।”
“भविष्य में पार्टियों को इस प्रक्रिया की गंभीरता का सम्मान करने और उनके तर्क को विषय तक सीमित रखने के लिए निर्देशित किया जाता है”, आर्बिट्रेटर ने अपने आदेश में कहा।
एनसीयूआई की अपनी गवर्निंग काउंसिल के चुनाव पर रोक को हटाए जाने के प्रयासों को अब तक लगभग आधा दर्जन सुनवाई के बावजूद सफलता नहीं मिली है। सूत्रों के मुताबिक, एनएलसीएफ और उसके एक निदेशक अशोक डबास द्वारा दायर निर्वाचन क्षेत्रों के पुनर्गठन के मुख्य मुद्दे पर बहस शुरू होनी बाकी है।
स्मरणीय है कि आर्बिट्रेटर ने पूर्व में आदेश दिया था कि अगले आदेश तक एनसीयूआई चुनाव के बारे में कोई निर्णय नहीं ले सकता है।एनसीयूआई की गवर्निंग काउंसिल की बैठक में, जो पंजाब में होनी थी और बाद में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए हुई, न तो चुनाव की तारीख पर और न ही आरओ के चयन पर फैसला लिया गया। सूत्रों ने कहा कि मंत्रालय ने मात्र दो नामों की एक सूची भेजी है, जिसमें से किसी एक का नाम एनसीयूआई द्वारा अनुमोदित किया जाना है।
याचिकाकर्ताओं ने आरोप लगाया है कि एनसीयूआई ने कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को जोड़ा है, जिससे भारतीय सहकारी आंदोलन के शीर्ष निकाय में कमजोर वर्गों की सहकारी समितियों के प्रतिनिधित्व का कमजोर होना निश्चित है।