सहकार धर्म पीठम के प्रतिनिधि ने पिछले सप्ताह भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना से मुलाकात की और बैंकिंग नियामक (संशोधन) अधिनियम, 2020 को निरस्त करने के लिए एक ज्ञापन सौंपा।
बता दें कि यह संस्था सहकारी सिद्धांतों और नैतिकता का प्रचार करने वाली एक धार्मिक संस्था होने का दावा करती है।
“भारतीयसहकारिता” से बात करते हुए संगठन के प्रमुख शम्भरापु भूमैया ने कहा कि उन्होंने पिछले सप्ताह हैदराबाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश से मुलाकात की थी।
उन्होंने आगे कहा, “मैंने भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश श्री एनवी रमना को 19-6-2021 को हैदराबाद में बैंकिंग नियामक (संशोधन) अधिनियम –2020 की धारा 12(1) को रद्द करने के लिए एक ज्ञापन सौंपा क्योंकि धारा 12(1) संविधान में विहित मौलिक अधिकार की धारा 19(1)(जी) के विरुद्ध है।”
भूमैया ने भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा है जिसमें उन्होंने नए बैंकिंग नियामक (संशोधन) अधिनियम को रद्द करने का आग्रह किया गया है, जो सहकारिता के बुनियादी सिद्धांतों के लिए खतरा है, संस्था की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार।
उन्होंने अपने पत्र में कहा है कि बैंकिंग नियामक (संशोधन) अधिनियम –2020 की धारा 12(1) के माध्यम से मौलिक अधिकार की धारा 19(1)(जी) का उल्लंघन किया जा रहा है क्योंकि यह भारतीय संविधान की मूल प्रकृति को बदल देता है।
दरअसल, संशोधित अधिनियम-2020 की धारा 12(1) के प्रावधान सहकारी बैंकों को उनके मालिकों – प्राथमिक कृषि सहकारी समिति, प्राथमिक सहकारी समिति, किसान और समाज के कमजोर वर्ग – से छीनकर निजी क्षेत्र को सौंपने के संदर्भ में हैं।
उनका कहना है कि भारत मुख्य रूप से एक ग्रामीण अर्थव्यवस्था है, जहां गरीबी अभी भी बड़ी संख्या में लोगों को प्रभावित कर रही है। निजी क्षेत्र जमीनी स्तर पर गरीबों के लिए काम करने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखता है। निजी क्षेत्र के विस्तार से समस्याएं और उत्पन्न होंगी। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि सहकारी बैंकों की डोर निजी क्षेत्र में आने के बाद ग्रामीण आबादी काफी प्रभावित होगी।
“इन परिस्थितियों में हम आपसे नए कानून को रद्द करने का अनुरोध करते हैं ताकि संविधान के मौलिक अधिकार को बरकरार रखा जा सके”, पत्र में पठित।