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पटना हाई कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा कि प्रखंड विकास अधिकारी (बीओडी) एवं अंचल अधिकारी (सीओ) के बजाय केवल प्रबंध समिति ही पैक्स में सदस्यों की नियुक्ति कर सकती है। इस फैसले से अनिवार्य रूप से यह सिद्ध होता है कि पैक्स अध्यक्ष और प्रबंध समिति सर्वोच्च हैं।
इस प्रगति पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए बिस्कोमान के अध्यक्ष और मामले में मुख्य प्रस्तावक सुनील कुमार सिंह ने कहा कि इस फैसले का देश भर में फैली पैक्स पर असर पड़ेगा और यह सहकारिता आंदोलन की जीत है।
सुनील ने कहा कि बिहार के सहकारी नेता हमेशा से कार्यकारिणी के कठोर कानूनों का विरोध करते रहे हैं। उन्होंने व्यापार मंडल के मामले का हवाला दिया, जिसमें सरकार के फरमान ने केवल सहकारी समितियों को इसका सदस्य बनने की अनुमति दी थी। “हमने अदालत में लड़ाई लड़ी और तर्क दिया कि जो व्यक्ति वर्षों से व्यापर मंडल के सदस्य हैं, उन्हें सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता है। अदालत ने हमारी बात को बरकरार रखा”, सुनील ने कहा। “यह तीसरा सहकारिता अधिनियम था, जिसमें हम सरकार के खिलाफ पलटवार करने में सफल रहे हैं, सुनील ने जीत की भावना के साथ कहा।
स्मरणीय है कि नीतीश सरकार ने एक अधिनियम पारित किया था जिसके तहत पैक्स को विशेष जाति के कमजोर वर्गों से न्यूनतम 1000 सदस्यों को नामांकित करने का निर्देश दिया गया था। यह प्रबंध समिति के समस्त सदस्यों, प्रखंड सहकारिता विस्तार अधिकारी एवं पैक्स प्रबंधक की उपस्थिति में एक विशेष शिविर के माध्यम से किया जाना था और ऐसा न करने पर सभी संबंधितों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही की जानी थी।
इसको चुनौती दी गई और कोर्ट ने राज्य सरकार द्वारा जारी निर्देशों पर रोक लगा दी। हालांकि, राज्य सरकार ने विभिन्न जिलों के स्थानीय अधिकारियों को अपने स्तर पर पैक्स के सदस्यता अभियान की कवायद शुरू करने का निर्देश दे दिया था। उसके तहत बीडीओ पालीगंज ने कई लोगों को याचिकाकर्ता समिति के सदस्य के रूप में शामिल किया था।
बिहार राज्य सहकारी विकास समन्वय समिति के बैनर तले लड़ते हुए याचिकाकर्ताओं ने दावा किया था कि पैक्स और उसकी प्रबंध समिति के अधिकारों को हड़पकर सत्ता का प्रयोग किया जा रहा है।
इस मुद्दे पर फैसला सुनाते हुए पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा, “नियम 7(4) के आसपास के मुख्य मुद्दों पर निर्भरता रखते हुए, इस न्यायालय का मानना है कि यह अधिकारातीत और असंवैधानिक है क्योंकि यह अनुच्छेद 19(1)(सी) और मूल कानून का उल्लंघन करता है।
निर्णय द्वारा उद्धृत मुख्य कारण था नियम 7(4) जो अनुच्छेद 19(1)(सी) का उल्लंघन करता था क्योंकि यह राज्य को समिति की संरचना में इस तरह से हस्तक्षेप करने का अधिकार देता है जिसकी परिकल्पना मूल अधिनियम में नहीं की गयी थी, और मूल कानून ऐसी स्थिति पर विचार नहीं करता है जहाँ राज्य सरकार अपने अधिकारियों के माध्यम से मूल सदस्यों की सहमति के बिना सोसायटी की संरचना का निर्धारण कर सकती है।
विचाराधीन प्रमुख बिंदु यह था कि क्या बिहार सहकारी समिति नियम, 1959 (नियमों के रूप में संदर्भित) मूल क़ानून- अर्थात बिहार सहकारी समिति अधिनियम, 1935 के तहत परिकल्पित शक्तियों के अत्यधिक प्रत्यायोजन के दोष से ग्रस्त हैं।
दूसरा मुद्दा यह था कि क्या निर्दिष्ट अधिकारियों को किसी सोसायटी में सदस्यता प्रदान करने की शक्ति भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(सी); और अधिनियम के प्रावधान का उल्लंघन करती है।