दिल्ली के एनसीयूआई सभागार में आयोजित नेफकॉब की 42वीं एजीएम को संबोधित करते हुए आरबीआई के नव नियुक्त निदेशक सतीश मराठे ने कहा कि,“मुझे अपनी जिम्मेदारियों के बारे में पता है और मैं निश्चित रूप से यूसीबी सेक्टर की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करूंगा। “हमें सहकारिता के संदर्भ में नीति निर्माताओं की मानसिकता को बदलने की तत्काल आवश्यकता है।“
नीति निर्माताओं को यह महसूस कराना होगा कि सहकारी स्वामित्व का एक अलग रूप है; विदेशी देशों की तर्ज पर भारत में सहकारिता को बिजनेस इंटरप्राइजेज कहना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। अफसोस की बात है कि मीडिया ने भी सहकारिता को इसी दृष्टि से देखा है जबकि सहकारिता इकनोमिक इंटरप्राइजेज है न कि बिजनेस इंटरप्राइजेज।
दूसरी ओर नीति निर्माताओं को ध्यान में रखना चाहिए कि सहकारी संस्थाएं लाभ कमाने वाली संस्थाएं नहीं है। एक आकलन के मुताबिक, एक सहकारी संस्था 10 से 15 प्रतिशत से अधिक लभांश नहीं दे सकती है, शेष लाभ को वे सोशल कार्य में खर्च करती हैं। मराठे ने 2002 की नाबार्ड की रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि, “नाबार्ड ने अपनी रिपोर्ट में बुनियादी ढांचे के निर्माण में सहकारी समितियों की भूमिका को सराहा है।
मराठे ने मंच से सहकारी समितियों के बारे में अच्छी खबर के लिए मीडिया से समर्थन की मांग की। इस संदर्भ में, उन्होंने देश-भर में लाखों सहकारी समितियों को मजबूत बनाने में एनसीडीसी द्वारा किये गए कार्य को रेखांकित किया जिसे मीडिया की सुर्खियों में कोई जगह नहीं मिली।
एजीएम में मराठे के आगमन पर यूसीबी बिरादरी ने उन्हें सम्मानित किया। नेफकॉब के अध्यक्ष ज्योतिंद्र मेहता ने उन्हें राजनीतिक विचारक कहा वहीं एच के पाटिल ने कहा कि वह आरबीआई बोर्ड में हमारे मित्र, और गाइड होंगे।
सहकारी नेताओं ने मराठे की नियुक्ति पर अपनी खुशी व्यक्त की। उनकी नियुक्ति का मतलब है कि सरकार अभी भी इस क्षेत्र की परवाह करती है।
मराठे ने कहा कि 1967 के बाद से सहकारिता का महत्व सरकारी योजनाएं में खत्म हो गया है और बजट में कहीं भी सहकारी शब्द का जिक्र तक नहीं किया जाता है। उन्होंने इस क्षेत्र को वापस ट्रैक पर लाने की कसम खाई।