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उत्तरी बिहार में सहकारी आंदोलन विफल

संवाददाता पी एन ची

सहकारिता आंदोलन बिहार में पिछले सालों में बहुत कमजोर हो गया है, विशेष रूप से राज्य के उत्तरी हिस्से में आंदोलन की अनुपस्थिति उसकी विफलता की गवाही देती है।

भारतीय सहकारिता डॉट कॉम के संवाददाता ने कई दिन बिताकर सहकारी इकाई के लिए क्षेत्र स्काउटिंग की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। उन्होंने कई गांवों का दौरा किया है लेकिन उनमें से एक में भी सहकारी समिति नही थी।

उन्होंने साधारण ग्रामीणों से मुलाकात की सभी सहकारी संस्था के लिए तड़प रहे थे, लेकिन इसके बारे में क्या करें इससे अनजान थे। उन्हें राज्य सरकार के सहकारिता विभाग के अस्तित्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी।

पूछने पर पता चला कि केवल कुछ खादी ग्रामोउद्योग की इकाईयाँ 60 और 70 के दशक में यहाँ थी, लेकिन इसके बाद से इनका कोई अता पता नही है। कुछ शिक्षित ग्रामीणों ने संवाददाता को बताया कि “क्षेत्र कृषि से संबंधित गतिविधियों पर पूरी तरह से निर्भर होने के कारण सहकारीकरण के लिए बहुत ही उपयुक्त है।

वहाँ के छोटे किसानों के पास कोई साधन नही हैं। वे पारंपरिक साहूकारों से ऋण लेते हैं। वे सभी ब्याज का अत्यधिक दर से भुगतान करते हैं और गरीब होते रहते है, दरभंगा के जिले करजापट्टी के एक पूर्व स्कूल शिक्षक जयचंद्र झा ने कहा।

इस वित्तीय लाचारी की पृष्ठभूमि में सहकारी समितियाँ आसानी से ब्याज के साथ क्रेडिट उचित दर पर किसानों को उपलब्ध करा सकते है और इस तरह ग्रामीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है,एक स्थानीय अर्थशास्त्री राधाकृष्ण चौधरी ने सुझाव दिया।

अरुण कुमार चौधरी जिनका गांव में एक नर्सरी और पशुशाला है उन्होंने अपनी झुंझलाहट को व्यक्त किया और कहा कि “बुनकरों के समूहों और छोटे पैमाने पर हस्तशिल्प इकाइयाँ दरभंगा और आसपास के ग्रामीण इलाकों में खतरें में है और धन की कमी के कारण वे कभी भी बंद हो सकते है।

श्री चौधरी ने कहा कि वहाँ तत्काल वित्तीय हस्तक्षेप की जरुरत है और सहकारी समितियाँ ऋण के एक स्रोत के रूप में काम आ सकते है।

श्री एल. के. चौधरी जो गणित में एक डॉक्टर की उपाधि का दावा करते है कहते हैं कि यह अफ़सोस की बात है कि सहकारी समितियों को अभी तक मिथिला चित्रों को बेचने की बात नहीं सूझी है, यह एक कला है जिसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त हो रहा है। यह एक बड़ा व्यापार साबित हो सकता है।

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